पुरुष की ही नज़रों का शिकार थी
तुम तब भी पद्मावती
और आज भी।
सिंदूर का ग़ुलाम किसने किया?
सौंदर्य का बखान किसने किया?
जौहर का इंतज़ाम किसने किया?
युद्ध में, जुए में, स्त्री को परिभाषित
जीतने वाला सामान किसने किया?
ना किसी मुसलमान की हवस थी
ना ही थी किसी राजपूत की हार,
तुम्हें आग में ढकेलने वाला था
पुरुष का तुम पर तुमसे ज़्यादा अधिकार।
तो जौहर में तुम्हें झोंकने वालों को आज
राजपूत और मुसलमान किसने किया?
उन्होंने जो तुम्हारे ज़िंदा जलते शरीर पर
शर्म और दर्द नहीं महसूस करते,
गर्व का महोत्सव मनाना चाहते हैं।
और जो स्त्री को आज भी
तलवार चलाना सिखाने की जगह
आग में जलाना चाहते हैं।
तुम्हारे मुंह से तो कभी सुनेंगे नहीं
कहानी तुम्हारी,
वे अपने शब्दों का
डंका बजवाना चाहते हैं।
पुरुष के ही शब्दों का शिकार थी
तुम तब भी पद्मावती
और आज भी।
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हम पुरुषों की मस्तक की ताज थी नारियाँ,
कल भी और आज भी।
किसी की खेल की वस्तु समान थी नारियाँ,
कल भी और आज भी।
नारी के स्वाभिमान के लिए पुरुष
अपनी जान गवाँ देता,
जीते जी कभी उसपर आँच नही
आने देता,
इस त्याग को देख नारियाँ सिंदूररूप में उसे,
मस्तक पर सजाती है,
कोई छू ना ले दुष्ट उसे खुद,
जौहर कर जाती है,
जौहर कोई गर्व का महोत्सव नहीं,
पद्मावती,
ना ही बलिदान कोई उत्सव,
रतनसिंह का,
ये तो उनके त्याग,प्रेम और बलिदान का
गान है,
कल भी और आज भी।
किसी की खेल की वस्तु समान थी नारियाँ,
कल भी और आज भी।
जुआ निश्चित ही हमारे इतिहास का,
अभिशाप था,
माँ,बहन,बेटी को देवी समान पूजनेवाले भरतवंशियों के दामन पर,
बहुत बड़ा दाग था,
अपनी वीर बेटी के लायक उसे वर मिले,
युद्ध तो मर्द की योग्यता जाँचने का
मात्र एक कार्य था,
नारियाँ पुरुष की और पुरुष नारियों का,
अभिमान था,
कल भी और आज भी,
किसी की खेल की वस्तु समान थी नारियाँ,
कल भी और आज भी।
Beautiful nerration