बुनियादी बातें (Buniyadi Baatein)

Power (बुनियादी बातें – Episode 9)

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नमस्कार। बुनियादी बातें के नवें episode में आपका स्वागत है। इस सीरीज़ में हम दुनिया भर की बातें करते हैं – science की, history की, society की। लेकिन हमेशा करते हैं बुनियादी बातें। आज हम बात करने वाले हैं Power की, जिसकी चर्चा इस सीरीज़ के पिछले कुछ episodes में भी हुई है, लेकिन जिसके बारे में हमने विस्तृत बातें नहीं की हैं।

Power, of course, English का एक शब्द हैं जिसका मतलब सभी जानते होंगे। तो फिर हम इसके ऊपर पूरा episode क्यों बना रहे हैं। क्योंकि हम English word power की नहीं बल्कि social power के concept की बात कर रहे हैं, जो कि थोड़ा subtle concept है, लेकिन जो हमारे समाज, देश, क़ानून व्यवस्था, in fact, मानव सभ्यता की बुनियाद को प्रभावित करता है। बल्कि ये कहना ज़्यादा सही होगा कि Social power और उससे जुड़ा concept – privilege – हमारे समाज की बुनियाद में गुंथे हुए हैं, और इस तरह गुंथे हुए हैं कि हमें पता भी नहीं चलता कि वे exist करते हैं। Power और privilege को समझना, एक तरह से अपने आप को समझने का तरीका है।

क्या आपने कभी ऐसी घटना सुनी या देखी है जहाँ किसी teacher के छोटे से encouragement से किसी बच्चे ने ऐसी line पकड़ी जिससे उसकी ज़िंदगी बन गई। और उसका उलटा भी जहाँ किसी teacher की डाँट या हतोत्साहित करने वाली बात ने किसी बच्चे को कोशिश करने से भी रोक दिया। Teachers जिन बच्चों को पसंद करते है, और जिनको नापसंद करते हैं, जिनके ऊपर ध्यान देते हैं, और जिनके ऊपर नहीं देते हैं, उनका development बिलकुल अलग direction में होता है। Teacher और student की relationship में, भले ही कितनी कहानियाँ हों कि बच्चे teachers को कितना परेशान करते हैं, लेकिन ultimately teacher के पास एक power होती है। उनके पास power होती है कि बच्चों को दिन को रात, और रात को दिन बता दें, और बच्चे उसे मान लें। इस power का physical power से कोई लेना-देना नहीं है। जहाँ teacher बच्चे पर गलती से भी हाथ नहीं उठा सकते, वहाँ भी teacher की power होती है। ये एक social power है।

अब उस teacher को देखें, तो उनके ऊपर भी किसी की power होगी। School के principal की, school के administration की, और अगर बहुत पैसे charge करने वाला private school है, तो शायद बच्चों के parents की भी। और यहाँ सिर्फ formal power की बात नहीं हो रही है, कि principal teacher का boss है, तो कुछ decisions उसके पास हैं। यहाँ भी एक subtle power है। मान लीजिए कि teacher ने किसी student से सख्ती से कुछ कहा, और parents गुस्सा हो गए। यहाँ पर school principal teacher के साथ खड़ा होगा या नहीं, ये उस teacher के ऊपर उसकी बहुत बड़ी पावर है, और शायद student के ऊपर भी। इस situation में कौन सही था और कौन गलत, ये निर्णय लेने की पावर है उसके पास। तो एक principal की teacher और student दोनो के ऊपर power है।

उसी तरह से पुलिस के पास power है। कानून की रक्षा करने के लिए तो कई तरह की powers हैं ही, formally, लेकिन एक आम नागरिक के नज़रिए से कई तरह की subtle powers भी हैं। आप किसी की complaint कर रहे हैं तो वो आपको seriously लेंगे या नहीं, report लिखेंगे या नहीं, report लिखी भी तो उस पर कोई कार्यवाही करेंगे या नहीं, ये एक पावर है पुलिस के पास आपके ऊपर। दूसरी तरफ़ अगर कोई आपके ख़िलाफ़ झूठी complain लिखवा रहा है, तो पुलिस उसे कैसे handle करेगी, इसकी वजह से भी उनकी बड़ी power है आपके ऊपर। और proxy से जिन लोगों को police ज़्यादा seriously लेती है, जैसे कि जिनकी police department में जान-पहचान है उनकी आपके ऊपर power हो जाती है।

Power dynamics लगभग हर relationship में होती है। एक job interview के समय interviewer की interviewee के ऊपर पावर होती है, parents की बच्चों के ऊपर power होती है, अगर एक business negotiation चल रहा है दो कंपनियों के बीच तो उनमें से एक अगर established बड़ी company है और दूसरी एक startup जो किसी तरह से market में घुसने की कोशिश कर रही है, तो established company के लोगों की startup के लोगों के ऊपर पावर है।

इन उदाहरणों में हम फिर भी power का एक formal, legitimate source और reason देख सकते हैं। लेकिन power के source कई बार legitimate नहीं होते हैं, फिर भी power होती है। और यहाँ के कुछ उदाहरण आपको uncomfortable लगेंगे, लेकिन सुनिए ज़रूर। किसी भी public जगह पर बस, train, मेला, बाज़ार – पुरुषों की स्त्रियों के ऊपर पावर होती है। वे बहुत कुछ कर सकते हैं, स्त्रियों को molest कर सकते हैं, सीटियाँ बजाकर, ऊल-जलूल बातें कर के उनकी insult कर सकते हैं, उन्हें डरा सकते हैं, उनके आत्मविश्वास और dignity को ज़िंदग़ी भर के लिए चोट पहुँचा सकते हैं, और उन्हें पता है कि उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। हमारा समाज, यहाँ तक की हमारी पुलिस और हमारे नेता भी स्त्रियों को घर पर रहने को कहेंगे। ये है पावर एक gender की दूसरे gender पर। कोई legitimate reason नहीं है, लेकिन power है। हर रोज़. हर कोई इस्तेमाल करे या ना करे लेकिन power है।

एक और उदाहरण है इस तरह की पावर का जिसे मानने से हमारा समाज, खास कर के सवर्ण लोग, बहुत कतराते हैं। वो है तथाकथित ऊँची जाति के लोगों का तथाकथित नीची जाति के लोगों पर पावर। और नहीं, यह सिर्फ़ पिछड़े गांवों में नहीं है, जहाँ दलित दूल्हे को घोड़ी चढ़ने के लिए भी मार दिया जाता है। ये हर जगह है, हमारे शहरों में, हमारे परिवारों में, हमारे educational institutes में, हमारे workplaces में, fancy से fancy जगहों पर सवर्ण लोग दलितों का, आदिवासियों का मज़ाक उड़ा सकते हैं, उन्हें नीचा दिखा सकते हैं, caste-no-bar का वैवाहिक विज्ञापन देकर भी दलितों से विवाह करने से इंकार कर सकते हैं और उनकी बेइज़्जती कर सकते हैं, “category candidates” को नीची नज़रों से देख सकते हैं, उन्हें हतोत्साहित कर सकते हैं, उनकी hiring और promotion में अड़चन डाल सकते हैं अपने biases की वजह से, और उनका कुछ नहीं बिगड़ता। Caste की बात आने पर ज़्यादातर लोग इस power dynamic के बारे में बात नहीं करना चाहते, बस reservation आज-के-आज खतम करा देना चाहते हैं। Reservation के बारे में हम कभी फिर बात करेंगे। लेकिन power का ये उदाहरण मत भूलिएगा।

एक और महत्वपूर्ण power को समझना ज़रूरी है, वो है सरकार की पावर, नागरिकों के ऊपर। Formally और exactly, हम इसे state power कहते हैं। State का मतलब यहाँ राज्य नहीं है। State शब्द को यहाँ overall सरकारी machinery का पर्याय माना जा सकता है – हर level की machinery। इस power का source legitimate है। State का काम है कि समाज में क़ानून-व्यवस्था बनाए रखे, और इसलिए उसके पास लोगों को गलत काम करने से रोकने की power होनी ही होगी। और क्योंकि state की responsibility इतनी बड़ी है, उसकी powers भी बहुत ज़्यादा हैं, और बहुत pervasive हैं। बड़े स्तर पर हर तरह के गलत काम को रोकने के लिए state ने बहुत तरह के नियम-कानून बना रखे हैं। इतने नियम-क़ानून हैं कि कोई भी सारे नियम-क़ानून जान नहीं सकता, और जानें भी तो कई परिस्थितियों में उनको follow करना possible ही नहीं होगा। Zebra crossing पर सड़क ना cross कर के ही हमारे देश में कितने लोग रोज़ क़ानून तोड़ते हैं। लेकिन हमारे शहरों में जितनी population है, सड़कों और traffic की जो हालत है, और zebra crossings की उपलब्धता ही इतनी कम है, तो अगर सब लोग उस क़ानून को follow करने लगें तो शायद शहरों में सारा काम ही रुक जाएगा। आधे लोग nearest zebra crossing तक पहुँच नहीं पाएंगे, आधे पहुँच कर वहाँ jam लगा देंगे। लेकिन सरकार अगर आपके पीछे पड़ जाए तो zebra crossing का ही इस्तेमाल कर के आपकी ज़िंदग़ी हराम कर सकती है। ये थोड़ा comical लगता है, लेकिन कई ऐसे नियम क़ानून हैं, जिनका इस्तेमाल बिलकुल legitimate तरीके से कर के सरकार बिलकुल innocent लोगों की ज़िंद़ग़ी खराब कर सकती है। और ऐसा हर रोज़ होता है। कितने लोग सालों तक जेल में सड़कर बेगुनाह साबित किए जाते हैं। Eventually अगर उन्हें रिहाई मिल भी गई तो भी सरकार की power ने उनके इतने साल और जिंदग़ी तो खराब कर ही दी।

सरकार के पास सिर्फ़ कानून का इस्तेमाल करने की नहीं, बल्कि क़ानून बनाने की भी power होती है। किस चीज़ को गलत माना जाता है, किसको नहीं, यह अपने आप में power का बड़ा source है। मान लीजिए कि अगर सरकार ने नियम बना दिया कि शादी-ब्याह, जन्मदिन, त्योहारों पर जितने भी gifts लिए-दिए जाते हैं, उन सबका ब्योरा आपको अपने income tax return में देना होगा, तो कितने लोग इस नियम का शत-प्रतिशत पालन कर पाएंगे। सरकार भी सबके पीछे नहीं दौड़ पाएगी, लेकिन जिसके पीछे वह जाना चाहे, उसे अगर सौ रुपए की एक किताब भी gift में मिली हो तो income tax evasion का मामला बनाकर उन्हें पूरी जिंदग़ी court-कचहरी और वकीलों के चक्कर में फंसा कर रख देगी। Gifts का लेखा-जोखा रखने के क़ानून के पीछे genuine वजह ये हो सकती है कि कई लोग commercial transactions को gifts बता कर tax की चोरी कर रहे हों। लेकिन gifts लेना-देना आम आदमी के लिए इतना normal काम है कि ऐसा क़ानून बना देने के बाद अपनी life एक बिलकुल normal तरीके से जीने वाला इंसान भी आसानी से मुजरिम करार दिया जा सकता है। तो state power की जरूरत तो है, लेकिन ये ध्यान में रखना बहुत ज़रूरी है कि वो power बहुत ज़्यादा है और उसके गलत इस्तेमाल से लोगों की ज़िंदगी बर्बाद हो सकती है, और हर रोज़ होती है।

क्यों power relationships को समझना ज़रूरी है। क्योंकि हमारे समाज में बहुत कुछ जो सही या गलत होता है, वह इसपर निर्भर करता है कि क्या हम इस power dynamics में powerful को और बढ़ावा दे रहे हैं, और जिनके पास power नहीं है उनपर ही और मुसीबत डाले जा रहे हैं, या हम powerful लोगों से accountability माँग रहे हैं। ये power dynamics और उसकी तरफ़ हमारा attitude ये decide करते हैं कि हमने किस तरह का समाज बनाया है। एक तानाशाही समाज में तानाशाह की पावर absolute होती है और वह उसका जैसे भी इस्तेमाल करे, कोई उसे कुछ कह नहीं सकता। यह तो एक अच्छा समाज नहीं है। और इसलिए एक democratic या लोकतांत्रिक समाज में सरकार से, powerful लोगों से सवाल पूछने की आज़ादी ज़रूरी मानी जाती है।

क्या करना चाहिए एक अच्छे समाज को अलग-अलग तरह की power dynamics के बारे में।

उसे समझने के लिए इस बात पर फिर गौर करते हैं कि power दो तरह की हैं हमारे उदाहरणों में।

एक तरह की power ज़रूरी power, उसका एक legitimate reason या source है। जैसे कि parents की बच्चों के ऊपर power होना ज़रूरी है, खास कर के तब जब वह छोटे हैं, क्योंकि वे अपनी ज़िदगी खुद जीने में, या अपने लिए सही decisions लेने में सक्षम नहीं है। तो अगर parents के पास उनके भले-बुरे के लिए निर्णय लेने की power नहीं होगी, तो बच्चे ज़िदा ही नहीं बचेंगे, parents ने ना रोका तो कितने बच्चे खुद को आग में झुलसा लेंगे या सीढ़ियों पर गिर कर मर जाएंगे, या बच भी गए तो अगर parents उनके पीछे नहीं पड़े, तो कभी पढ़ाई नही करेंगे, कुछ काम करना नहीं सीखेंगे, किसी काम के नहीं रहेंगे। इसी तरह से school में teachers की, office में seniors की और managers की, और देश में सरकार की power ज़रूरी है, वर्ना वे अपना काम नहीं कर पाएंगे और समाज चलेगा ही नहीं।

ऐसे power के case में एक अच्छे समाज में ध्यान इस चीज़ पर दिया जाएगा कि powerful व्यक्ति या institution accountable [JJ1] है, अपने power का गलत इस्तेमाल नहीं कर रहा है, और अपने पावर का इस्तेमाल सिर्फ अपना काम करने के लिए कर रहा है, personal फ़ायदे के लिए नहीं कर रहा, और अपने power के इस्तेमाल में अपने biases को नहीं आने दे रहा है। एक अच्छा समाज यह भी ensure करेगा कि power किसी को सिर्फ़ उतनी मिले जितनी absolutely ज़रूरत है। क्योंकि ज़्यादा power, मतलब power का ज़्यादा misuse.

दूसरी तरह की power बिलकुल गलत होती है। जैसे कि gender और caste वाली power. एक अच्छा समाज इसको justify करने की कोशिश नहीं करेगा, उसको नज़रअंदाज़ करने की कोशिश भी नहीं करेगा, बल्कि इसके खिलाफ़ जंग छेड़ देगा। तब तक जब तक ऐसी power dynamics समाज से खतम ना हो जाए। लेकिन एक practical अच्छा समाज यह भी समझेगा कि ये जंग लंबी चलेगी क्योंकि कोई भी power छोड़ना नहीं चाहता। एक practical अच्छा समाज यह भी समझेगा कि कोई silver bullet या quick solution नहीं है इस समस्या का। जंग लंबी चलनी ही होगी।

अब अगर आप देश और समाज में कुछ individuals, groups और institutions की power की existence की ज़रूरत और खतरों दोनो को समझते हैं, तो वहाँ से हम संविधान और कानून के कई प्रावधानों को बेहतर समझ सकते हैं। ऐसे कुछ प्रावधानों पर बात करते हैं।

हमने पिछले episode Indian Democracy में बात की थी कि कैसे democracy को सरकार और नागरिकों के बीच के power difference को address करना होता है, और उसके लिए कैसे संविधान में कई प्रावधान है। जैसे कि नागरिकों के मौलिक अधिकार – fundamental rights. हमारी moral upbringing ऐसी है कि हम कई बार rights – अधिकार – शब्द को अच्छा मानने से कतराते हैं। कई लोग तो ऐसे behave करते हैं जैसे कि सरकार से अधिकारों की मांग करके हम selfish हो रहे हैं। जैसे कि हम कोई बिगड़े बच्चे हैं, जिन्होंने अपने parents से कोई महँगा gift खरीदने की ज़िद लगा दी हो। लेकिन हमारे सांवैधानिक अधिकार बिगड़े बच्चे को मिले gifts नहीं हैं। हमारे सांवैधानिक अधिकार एक अच्छे, न्यायपूर्ण समाज की रीढ़ हैं। क्योंकि वे government की excessive power को regulate करने का तरीका हैं। तो आज के बाद कभी भी सांवैधानिक अधिकारों को, या उसकी मांग को हेय दृष्टि से मत देखिएगा।

सरकार में तीन independent अंगों का होना – विधायिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका – जिनके बीच division of power है, यह भी government या state power को control करने का तरीका हैं। इसलिए अगर कभी इनमें से एक अंग किसी दूसरे के प्रभाव में आता है, तो उसके बारे में चिंता करना, और उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना भी बिलकुल जायज़ है।

हमने episode में पहले ये भी कहा कि एक democratic या लोकतांत्रिक समाज में सरकार से, powerful लोगों से सवाल पूछने की आज़ादी ज़रूरी मानी जाती है। ये freedom of speech, और freedom of press जैसे सिद्धांतों में दिखता है। लेकिन इनका इस्तेमाल करके powerful लोगों या सरकार को challenge करना हमारी भारतीय संस्कृति में कई बार लोगों को सही नहीं लगता। हमें आज्ञाकारी होना सिखाया जाता है, बड़े लोगों की तरफ़ और authority वाले लोगों की तरफ़। और आम तौर पर rules-regulations को follow करना सही भी है। लेकिन जहाँ power dynamics को challenge करने की बात आती है, उसे संतुलित करने की बात आती है, वहाँ सरकार की तरफ़ blind obedience गलत है। Powerful लोगों और सरकार से सवाल पूछना, उनके गलत actions और rules के खिलाफ़ खड़े होना सही है। ये सिर्फ़ हमारा अधिकार ही नहीं, बल्कि नैतिक ज़िम्मेदारी है एक अच्छा, न्यायपूर्ण समाज बनाने के लिए।

State power से related कुछ प्रावधान criminal justice system में भी हैं। जब भी कोई crime होता है, जिसके लिए criminal case करना होता है – जैसे कि चोरी, rape, murder इत्यादि, तो इसमें आरोपी के ऊपर case चलाने की ज़िम्मेदारी सरकार की होती है, state की होती है। उसमें case victim और आरोपी के बीच नहीं चलता। जो कि एक अच्छी बात है, क्योंकि क़ानून व्यवस्था बनाए रखना सरकार का काम है और इसलिए case चलाना victim की ज़िम्मेदारी नहीं होनी चाहिए। कोई आरोपी इस वजह से नहीं बच जाना चाहिए कि victim कमज़ोर था या उसके पास resources नहीं थे। इस अच्छे प्रावधान का flip side ये है कि आरोपी के ख़िलाफ़ state power है। और state power, हमने देखा है कि बहुत ज़्यादा होती है, और बड़े-से-बड़े तीसमार खाँ लोगों को मज़ा चखा सकती है। अगर वे तीसमार खाँ वाकई दोषी हैं, तो फिर तो बहुत अच्छी बात है। लेकिन अगर नहीं दोषी हैं, और state की machinery उनके ख़िलाफ़ खड़ी हो गई तो उनको बचाना नामुमकिन हो जाएगा, अगर उनकी रक्षा के लिए प्रावधान नहीं हैं तो। इसलिए आरोपियों के पास भी कुछ अधिकार हैं। जैसे कि लगभग हर आरोपी का bail मिलने का अधिकार होता है। ऐसे आरोप जिसमें bail नहीं मिल सकती, बहुत संगीन और बहुत obvious होने चाहिए। पुलिस अगर non-bailable आरोप दायें-बायें लगाती रहती है जिनको भी चुप कराने का मन हुआ उनके ख़िलाफ़ तो यह गलत करती है क्योंकि ये state power का नाजायज़ इस्तेमाल है।  हर आरोपी को legal representation का भी अधिकार है precisely इसलिए कि उसके ख़िलाफ़ state power खड़ी है। अगर victim के कमज़ोर होने की वजह से दोषी का छूटना गलत है, तो आरोपी के कमज़ोर होने की वजह से उसको दोषी करार दिया जाना भी गलत है। हम अक्सर आरोपियों के अधिकार की महत्ता समझते नहीं है। और खासकर अगर हम convinced हैं कि आरोपी दोषी है, तो कई लोग चाहते हैं कि आरोपी को कोई मदद ना मिले। लेकिन यहाँ पर बात सिद्धांतों की है। एक आरोपी को आप दोषी मानते हैं, एक को नहीं। आरोपी होने की वजह से state machinery दोनों के ही ख़िलाफ़ खड़ी है। तो अगर आरोपियों के अधिकारों की रक्षा नहीं होगी तो निर्दोष आरोपी भी suffer करेंगे। और इसलिए state power के सामने आरोपियों के अधिकारों की रक्षा ज़रूरी है, चाहे वह ज़्यादातर cases में bail  का अधिकार हो, या legal representation का।

कई क़ानूनी प्रावधान नागरिकों के different groups के बीच के power को address करने के लिए भी बनाए जाते हैं। इनमें से कुछ well-known क़ानून हैं consumer protection act, SC/ST prevention of atrocities act, Dowry prevention और workplaces में women के sexual harassment को रोकने से संबंधित क़ानून जिसे अक्सर POSH act कहा जाता है – prevention of sexual harassment act. अगर बिलकुल technically देखा जाए तो इन क़ानूनों से जो achieve करने की कोशिश की जा रही है, उसके लिए इतने specific क़ानूनों की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए। SC/STs पर atrocities रोकने के लिए normal criminal law के प्रावधान काफ़ी होने चाहिए, और उसी तरह workplace sexual harassment से deal करने के लिए sexual assault से related दूसरे क़ानून काफ़ी होने चाहिए। फिर ये special क़ानून क्यों हैं? कई लोग कहेंगे कि vote bank के लिए हैं। अब हो सकता है कि कुछ क़ानूनों का vote bank के लिए इस्तेमाल होता हो समय-समय पर। लेकिन इस तरह के क़ानूनों के पीछे सिद्धांत vote bank का नहीं है। सिद्धांत power difference को address करने का है। इस case में power difference state और नागरिकों के बीच का नहीं है, बल्कि नागरिकों के different groups का है। इन cases में जो लोग crime करते हैं वे invariably victim से ज़्यादा powerful होते हैं socially। In fact, जिस rates से ये crime होते हैं, उसकी वजह ही यही है कि दो group के लोगों में इतना power difference है। जब औरतों का sexual harassment होता है, तो उसे और तरह के workplace harassment की तरह treat नहीं किया जाता। ज़्यादातर लोग इसे natural मानते हैं – ये सब तो चलता रहता है। उसके ख़िलाफ़ कोई victims का साथ नहीं देता, और प्रायः perpetrators organization में ज़्यादा ऊंचे position वाले men होते हैं। तो पूरी organization भी उनको बचाने में अपना भला समझती है। जैसे state power के खिलाफ़ आम आरोपियों को सहायता की ज़रूरत होती है, वैसे ही ऐसे cases में victims को अपने powerful opponents के ख़िलाफ़ ज़्यादा सहायता की ज़रूरत है, क्योंकि normal क़ानून इस power difference को ध्यान में रखकर नहीं बने हैं। Dowry harassment, दलित और बहुजनों के ख़िलाफ़ crimes में भी victims और perpetrators में ऐसे ही differences होते हैं, और ये special क़ानूनों की ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि ये clear था की normal क़ानून इस power difference को address नहीं कर पा रहे हैं।

अगर इस सिद्धांत को मानना आपके लिए मुश्किल हो रहा है क्योंकि इन क़ानूनों को लेकर लोगों के अक्सर strong emotional reaction होते हैं, तो consumer protection act का उदाहरण शायद ज़्यादा आसान होगा मानना क्योंकि इसको लेकर लोगों का ज़्यादा emotional reaction नहीं होता है। अगर किसी बड़ी कंपनी ने किसी उपभोक्ता के साथ cheating की, उसे गलत सामान बेचा, तो वह क़ानूनी तौर पर गलत है, लेकिन कितने आम लोग किसी कंपनी को court में ले जाकर case जीत पाएंगे। और उतने बड़े-बड़े lawyers को hire कर पाएंगे, जो उन companies के पास हैं case जीतने के लिए। Technically, cheating के ख़िलाफ़ कानून हैं, लेकिन वो इस power difference को address नहीं करते हैं। इसलिए consumer protection act उपभोक्ताओं के लिए ये काम थोड़ा आसान बना देता है।

इस तरह के क़ानूनों को लेकर लोगों का focus अक्सर ही इन दो चीज़ों पर रहता है कि इससे समस्या 100% solve नहीं हो जाती, और उसका दुरुपयोग होता है। और इसकी दुहाई देकर लोग अक्सर  Dowry prevention, POSH और SC/ST atrocities prevention acts के खिलाफ़ रहते हैं। लेकिन अगर ऐसा है तो फिर से consumer protection act के बारे में सोचिए, जिसको लेकर शायद emotional response उतना तगड़ा नहीं होगा और  आप शांति से सोच सकते हैं। क्या 100% consumer protection हो जाता है इससे, या क्या consumers इसका misuse नहीं करते हैं। जवाब है कि 100% consumer protection नहीं हो पाता – कई लोगों के लिए consumer courts भी बहुत बड़ा झंझट हैं, और हाँ, हैं उपभोक्ता जो इसका गलत इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं, खास कर छोटी कंपनियों के ख़िलाफ़ जिनके पास बड़ी कंपनियों जितनी power नहीं है। लेकिन अगर ये क़ानून चला जाएगा तो क्या दुनिया में 100% justice आ जाएगा। नहीं – बल्कि कंपनियाँ लोगों को ज़्यादा cheat करने लगेंगी। तो 100% goal achieve नहीं होना, या misuse की possibility होने का मतलब यह नहीं है कि हम powerless लोगों को powerful के ख़िलाफ़ क़ानून के ज़रिए protect करने की कोशिश छोड़ दें। हाँ, हमें 100% goal achieve करने के लिए, और misuse रोकने के लिए भी प्रयत्न ज़रूर करते रहने चाहिए।

ये episode लिखने में मुझे कई महीने लगे। ये बहुत difficult topic है। मुझे नहीं पता कि मैं इसे समझाने में कितनी successful ऱही हूँ लेकिन मुझे कोशिश करनी थी। क्योंकि power और privilege को समझना – privilege पर हमने इस episode में बात नहीं की – लेकिन इनको समझने के बाद मेरा दुनिया को देखने का तरीका ही बदल गया था। और जैसा मैंने शुरु में कहा था कि ये हमारे समाज की बुनियाद में ऐसा गुंथा हुआ है कि हमें दिखता नहीं है। लेकिन एक बार आपको दिख गया तो फिर आप इसको अनदेखा नहीं कर सकते। अगर उस process में इस episode से थोड़ी सी भी मदद मिले तो ये successful होगा। और यह भी संभव है कि कई लोग इस episode के content और इसके implications की वजह से मुझपर गुस्सा करें। ऐसे होता है तो माफ़ी चाहती हूँ, लेकिन सच uncomfortable होता है। ये मेरा किया-धरा नहीं है। So, don’t shoot the messenger.

बहुत-बहुत धन्यवाद ये episode देखने के लिए। आशा है आगे-पीछे वाले episodes भी आप देखेंगे।

Featured Image Credit: Photo by Kalea Morgan on Unsplash

बुनियादी बातें (Buniyadi Baatein)

Democracy (बुनियादी बातें – Episode 8)

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नमस्कार। बुनियादी बातें के आठवें episode में आपका स्वागत है। इस सीरीज़ में हम दुनिया भर की बातें करते हैं – science की, history की, society की। लेकिन हमेशा करते हैं बुनियादी बातें। और आज के episode में हम फिछले episode के topic democracy को आगे ले जाएंगे और बात करेंगे खास तौर पर Indian democracy की, भारतीय लोकतंत्र की। आपसे अनुरोध है कि इस episode को देखने से पहले पिछला episode definitely देखें। क्योंकि इस episode में हम पिछले episode की कई बातों को refer करेंगे।

हम Indian democracy की अलग से बात क्यों कर रहे हैं? क्योंकि हमने पिछले episode में दो चीज़ें देखी हैं –

  • पहली यह कि democracy कोई obvious चीज़ नहीं है। Democracy एक अच्छा सिद्धांत है जिसको वाकई में काम कराने के लिए पूरे democratic system को सही से design और implement करना होता है।
  • दूसरा ये कि भले ही democracy को design करना मुश्किल काम है, मानव सभ्यता के इतिहास को देखते हुए इसके अलावा कोई चारा नहीं है। कोई और शासन-तंत्र तो सैंद्धांतिक रूप में भी काम नहीं करेगा। इसलिए democracy को काम करवाना ज़रूरी है। हम सबके लिए।

और इसलिए Indian democracy की nitty-gritty हमें समझने की ज़रूरत है। कैसे Indian democracy design की गई है ताकि वह काम करे। और उसको समझने के बाद ही हम यह समझ सकते हैं कि कहाँ-कहाँ वो design sufficient नहीं है।

तो इस background के साथ आगे बढ़ते हैं और Indian democracy के अलग-अलग पहलुओं को समझते हैं।

एक basic पहलू है कि Indian democracy एक representative democracy है, direct democracy नहीं। हमारा शासन नागरिक directly नहीं चलाते, बल्कि वह हमारे प्रतिनिधियों के माध्यम से चलता है। आपको पिछले episode से याद होगा कि direct democracy के उदाहरण प्राचीन ग्रीस के city states या भारतीय जनपदों में मिलते हैं। लेकिन वे आज के भारत की तुलना में छोटे होते थे। आज के भारत जितने बड़े देश में हर कुछ तो direct democracy से नहीं चल सकता, इसलिए representative democracy लगभग ज़रूरी है।

Representative democracy के design के लिए भी कई options हैं, हम उनकी खूबियों और खामियों में अभी नहीं जाएंगे।

दूसरा बुनियादी पहलू है universal suffrage. हर नागरिक को वोटिंग का अधिकार है। इसको हम एक बड़े समता के अधिकार का हिस्सा भी मान सकते हैं, लेकिन universal suffrage अपने आप में भी बहुत powerful और ज़रूरी idea है, जो कि historically बहुत मुश्किल से, बहुत संघर्षों के बाद दुनिया में acceptable हुआ है। इसको हमें कभी भी lightly नहीं लेना चाहिए।

और अब हम आते हैं समस्याओं पर। Universal suffrage है, और representative democracy है, अच्छी चीज़ें हैं, लेकिन अगर democracy को यहीं पर छोड़ देंगे तो फिर समस्याएँ आएंगी, बहुत सारी, बहुत बड़ी।

एक समस्या है majoritarianism की।

नागरिक सामाजिक vacuum में exist नहीं करते। Indian होने के अलावा भी उनकी कई और तरह की identities हैं। परिवार, जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, इन सबके basis पर वे अलग-अलग groups के सदस्य हैं और इन सब पहलुओं का अपना-अपना इतिहास है। Groups होने में fundamentally कोई समस्या नहीं है, बल्कि groups और उनसे मिलने वाली identity, support, protection ये मानव समाज की रीढ़ हैं। तो अगर ये groups ना हों, तो शायद हम मानव समाज और सभ्यता की कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन ये groups अगर अपने members को identity, support और protection provide करते हैं, तो कभी-कभी ये दूसरे groups के competition में भी आ जाते हैं और अपने group के बाहर के लोगों से ये चीज़ें छीनना चाहते हैं। जो चीज़ एक group के लोगों के लिए फ़ायदेमंद है और सही है, वो दूसरे groups के लिए हानिकारक और गलत हो सकती है। और जिस group में लोग ज़्यादा हैं, उनके पास universal suffrage की वजह से group-level पर ज़्यादा votes हैं, और वो अपने group के लिए फ़ायदेमंद ज़्यादा representatives चुन सकते हैं और फिर शासन का सारा काम अपने मुताबिक करवा सकते हैं, जो कि दूसरे group के लोगों के लिए सही नहीं है। ये है majoritarianism की समस्या। कि democracy होने के बावजूद शासन सभी नागरिकों के लिए सही नहीं काम कर रहा है, बल्कि majoritarian group के लिए काम कर रहा है।

दूसरी समस्या है state power की। लोकतांत्रिक सरकार हो या किसी और तरीके की सरकार, जो लोग शासनतंत्र का हिस्सा होते हैं उन्हें पावर मिलती ही मिलती है। और जब इंसान को पावर मिलती है तो उसके दुरुपयोग की संभावना होती ही होती है। तो सिर्फ इसलिए कि शासन करने वालों को नागरिकों ने चुना है, उससे ये guarantee नहीं होती कि शासन-तंत्र के पास जो power है उसका उपयोग जनता के ख़िलाफ़ नहीं होगा।

तीसरी समस्या अलग-अलग group के नागरिकों के बीच के power और privilege difference की है। सबको वोट करने का अधिकार मिल जाने भर से ये सुनिश्चित नहीं हो जाता कि सभी लोगों की समाज में स्थिति बराबर है। Power सिर्फ़ क़ानून से ना डरने वाले मार-पीट करने वाले गुंडों की शांतिप्रिय नागरिकों पर नहीं होती है, बल्कि caste, class, gender, सरकारी position, पैसों की वजह से भी एक group की दूसरे group के उपर, या एक इंसान की दूसरे इंसान के ऊपर पावर होती है। और गुंडों की power की तुलना में, इनसे deal करना ज़्यादा मुश्किल होता है क्योंकि इनके power और privilege थोड़े subtle concepts हैं, और इस पर हमें ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है। आप समता या equality वाला हमारा episode ज़रूर देखें – episode number 4। Power और privilege पर हम बाद के किसी और episode में और भी बातें करेंगे। लेकिन अभी के लिए यह ध्यान रखना काफ़ी है कि वोटिंग का अधिकार दे देने से या सबके लिए एक जैसे नियम बना देने भर से democracy का आदर्श सुनिश्चित नहीं हो जाता। Specific लोगों या group के power और privilege को पहचानना और उससे आने वाली समस्याओं से जूझना ज़रूरी होता है।

तो हमने तीन तरह की समस्याओं की बात की जिससे हमें representative democracy with universal voting rights होने के बाद भी जूझना पड़ता है

एक, majoritarianism.

दो, state power – यानि नागरिकों के ऊपर सरकार की power.

तीन, नागरिकों के बीच power and privilege differences

तो India democracy के design में इन समस्याओं से जूझने के लिए कई तरह के प्रावधान हैं।

सबसे बड़ा प्रावधान हमारा संविधान है। हमारी democracy constitutional है, इसका मतलब यह है कि हमारे elected प्रतिनिधि चुने जाने के बाद अपनी मनमर्ज़ी से शासन नहीं चला सकते। उन्हें संविधान के अनुसार काम करना पड़ता है।

संविधान में जो हमें मौलिक अधिकार मिले हैं, वो हमें state power के और दूसरे नागरिकों या organizations के power और privilege के गलत इस्तेमाल से बचाते हैं। ये हमें majoritarianism से भी बचाते हैं क्योंकि हमारा शासन-तंत्र कुछ ऐसा नहीं कर सकता जिससे minority के लोगों को मौलिक अधिकारों या दूसरे सांवैधानिक प्रावधानों का हनन हो।

हमारी democracy के design में division of power का बहुत महत्व है। सरकार के तीन अंग हैं जो एक-दूसरे से independent हैं – विधायिका या legislature, कार्यपालिका या executive, और न्यायपालिका या judiciary. उनका एक-दूसरे से independent होना state power को absolute होने से रोकता है। इसलिए अगर हमारी विधायिका कोई ऐसे क़ानून बनाती है, जो कि सांवैधानिक नहीं है, किसी के अधिकारों का हनन करती है, या अगर हमारी कार्यपालिका पुलिस की force का गलत इस्तेमाल करती है, तो न्यायपालिका उनके खिलाफ़ निर्णय देकर उन्हें रोक सकती है। लेकिन न्यायपालिका की power भी absolute नहीं है। न्यायपालिका कोई क़ानून या काम विधायिका पर या कार्यापालिका पर थोप नहीं सकती। कार्यापालिका अपना उल्लू सीधा करने के लिए क़ानून ख़ुद से नहीं बना सकती, विधायिका ही कानून बना सकती है। यह independence और division of power कभी-कभी bureaucratic या slow लग सकता है। लेकिन ध्यान रखिए कि ये division of power democracy के लिए बहुत ज़रूरी है। इसके design में, processes में हो सकता है कि improvements की ज़रूरत हो, लेकिन जो लोग जोश में आकर यह division of power हटाना चाहते हैं, किसी एक इंसान या organization के हाथ में सारी powers दे देना चाहते हैं, वे basically democracy को तानाशाही में convert कर देना चाहते हैं। और जैसा कि हमने पिछले episode में discuss किया था कि तानाशाही किसी चीज़ का समाधान नहीं है।

विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के विभाजन के अलावा भी सरकार में दूसरे तरीके के divisions हैं power और काम के। जैसे कि government के अलग-अलग levels. Central government, state governments, और local governments. इससे एक तरह से regional majoritarianism को avoid किया जा सकता है। इससे ये सुनिश्चित होता है कि north east के किसी छोटे राज्य के बारे में निर्णय UP में बैठे हुए लोग नहीं ले रहे हैं, सिर्फ़ इसलिए कि UP की population बड़ी है। हमारे संविधान में central, state और local governments के लिए अलग-अलग कार्यक्षेत्र निर्धारित हैं, और division of power में ये भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

इनके अलावा free press, freedom of speech, कई तरह के क़ानून जो marginalized लोगों को protect करते हैं, और क़ानून जो बिना guilt साबित हुए किसी को मुजरिम नहीं करार देते हैं, इस तरह के हमारे संविधान, क़ानून, सरकारी नीतियों, इत्यादि में कई छोटे-बड़े प्रावधान है जो यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि democracy वाकई में सबके लिए काम करे। कभी-कभी वे obvious नहीं लगते। लेकिन आने वाले episodes में हम अलग-अलग इनमें से कइयों के बारे में विस्तार से बात करेंगे। अभी के लिए ये episode यह कर कर खत्म करना चाहूँगी कि Indian democracy एक बहुत complicated institution है, democracy का आना, उसका काम करना, उसे बचाकर रखना, ये one-time tasks नहीं है। ये हमें हर रोज़ करते रहने की ज़रूरत होती है। और मानव समाज इतना बड़ा और विस्तृत है, हमारा अपना देश इतना बड़ा और विविधताओं से भरा हुआ है कि यह आसान काम नहीं है। इसकी complications को समझने का काम हम इस series में करते रहेंगे और इसे बनाए रखने का काम हम सबको real life में हर रोज़ करते रहने की ज़रूरत है।

धन्यवाद।

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बुनियादी बातें (Buniyadi Baatein)

बुनियादी बातें Topicals: हिजाब और शिक्षा

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हमारे महान् देश में आज ये हो रहा है। लड़कियों को हिजाब पहनने की वजह से कॉलेज में नहीं घुसने दिया जा रहा है। मज़े की बात ये है कि कोई साफ़-साफ़ खड़े होकर कह भी नहीं रहा कि क्यों? अचानक हिजाब किसी के education के बीच में क्यों आ गया? कोई कुछ logical कहेगा भी कैसे? हिजाब करता क्या है? सर ढंकता है। That’s it! किसी को क्या problem हो सकती है उससे? कहीं principal कह रहे हैं कि government का order है। कहीं लड़के धमकी दे रहे हैं कि हिजाब नहीं रोका गया तो वो भगवा पहन कर आएंगे। अच्छा है। भगवा तो साधु-संतों का रंग है ना? गुंडागर्दी का तो नहीं? फिर धमकी की तरह क्यों इस्तेमाल हो रहा है? लेकिन इस्तेमाल हो रहा है धमकी की तरह। और कोई मुँह खोल कर मानना चाहे या नहीं, हम सबको पता है कि ये धमकी कहाँ से आती है। और अगर आपको लगता है कि ये हम सब की problem नहीं है, तो बस समय की बात है। Power के उन्माद में जो लोग किसी और के हित की परवाह नहीं करते, वो आज भले आपको अपने लिए problem ना लगें, वो आपके अपने नहीं हैं, वो सिर्फ़ पावर के अपने होते हैं। आज मुस्लिम लड़कियों के लिए ऊल-जलूल नियम बना रहे हैं, कल हिंदू औरतों के लिए बनाएंगे – बल्कि कोशिश तो ज़ारी रहती ही है उनकी – लेकिन परसों पुरुषों को भी नहीं छोड़ेंगे। आज कपड़ों के लिए नियम बना रहे हैं, कल खाने के लिए बनाएंगे, परसों आप किसके साथ बात कर सकते हैं, किससे दोस्ती कर सकते हैं इस पर रोक लगाएंगे,  और अगले दिन से आपकी पूरी ज़िंदग़ी चलाएंगे, आपको अपना गुलाम बनाएंगे।

आज ज़रूरत है कि हर parent – चाहे वो मुस्लिम हो या नहीं, कॉलेज के इस व्यवहार के ख़िलाफ़ खड़ा हो जाए। और आज ज़रूरत है कि हर student, हर युवा, चाहे वो उस कॉलेज से संबंध रखता हो या नहीं, इन लड़कियों के शिक्षा के अधिकार, जो चाहें वो पहनने के अधिकार के लिए लड़ाई लड़े। आज जो हो रहा है उसमें बात ये नहीं है कि हिजाब अच्छा है या बुरा। बात ये है कि अधिकार किसका है हिजाब पहनने या ना पहनने का। मैं चूड़ी, बिंदी, सिंदूर, मंगलसूत्र नहीं पहनती, नहीं पहनती क्योंकि नहीं पहनना चाहती, नहीं पहनना चाहती क्योंकि मेरा सैंद्धांतिक मतभेद है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि जिनको पहनना है उन्हें मैं डरा-धमका के पहनने से रोकूँ। ना ही किसी और को ये हक़ है कि मुझे ये सब पहनने पर मज़बूर करे। हिजाब से मुझे प्रेम नहीं है, प्रेम होता भी तो फर्क पड़ता नहीं है, लेकिन मुझे उन लड़कियों के पहनने या ना पहनने के अधिकार से प्रेम ज़रूर है। क्योंकि वे सांवैधानिक अधिकार मेरे भी हैं, आपके भी हैं, हम सबके हैं। और उनका ये अधिकार तब और भी मजबूत होगा जब उन्हें शिक्षा मिलेगी, और वे आत्मनिर्भर हो सकेंगी। तो अगर कॉलेज, सरकार, या सड़क के गुंडे उन्हें रोकते हैं, हिजाब के नाम पर या किसी भी और ऊल-जलूल बहाने से, तो उससे मुझे बहुत problem है और आप सबको होनी चाहिए।

मुझे नहीं पता कि इसकी politics अब कहाँ तक जाएगी। हिजाब कब निक़ाब, कब बुर्का, कब Triple Talaq, कब इस्लामिक terrorism बन जाएगा, मुझे नहीं पता। लेकिन ये लोग आपको distract करेंगे ही करेंगे। और politicians और गुंडे दूसरी side पर भी हैं, आग में घी डालने के लिए। इसलिए एक और ज़रूरत आज की ये है कि इन distractions में मत गुम हो जाइए। जो गलत हो रहा है उसको रोकिए। पचास और गलतियाँ हुईं या हो सकती हैं, इसके चक्कर में  इस बात से comfortable मत हो जाइए कि हमारे महान् देश में लड़कियों से शिक्षा का अधिकार छीना जा रहा है, हिजाब के नाम पर। और जो आज उनसे उनकी ज़िंदग़ी छीन रहे हैं, वो कल आपसे आपकी भी छीनेंगे।

धन्यवाद।

बुनियादी बातें (Buniyadi Baatein)

Democracy (बुनियादी बातें – Episode 7)

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नमस्कार। बुनियादी बातें के सातवें episode में आपका स्वागत हैं। इस सीरीज़ में हम दुनिया भर की बातें करते हैं – science की, history की, society की। लेकिन हमेशा करते हैं बुनियादी बातें। और आज हम बात करेंगे democracy की, लोकतंत्र की।

हम सब ने civics की किताब में बचपन में ही पढ़ा है कि लोकतंत्र जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनता का शासन होता है। लेकिन अगर आपने अबतक के  episodes देखें हैं इस सीरीज़ के तो आपको पता है कि बढ़िया quotations से हमेशा idea की complexity का पता नहीं चलता। “जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनता का शासन” तो ठीक है, लेकिन कैसे? जनता कोई एक जन तो है नहीं कि वो शासन के बारे में हर decision खुद लेती रहे। तो कैसे?

लेकिन इससे पहले कि हम कैसे पर आएँ, हमें “क्यों” समझना ज़रूरी है। क्यों आज लगभग पूरी दुनिया में democracy ही एकमात्र legitimate form of government मानी जाती है?

और ‘democracy क्यों?’, समझने से पहले ‘government क्यों?’ ये समझ लेते हैं।

मानव एक सामाजिक प्राणि है और मानव सभ्यता विकसित ही ऐसे हुई है कि हमें एक दूसरे के साथ मिल कर, एक-दूसरे पर निर्भर रहकर जीना पड़ता है। इसका मतलब यह है कि हमें एक-दूसरे के साथ compromise कर के भी जीना पड़ता है। हर कोई अगर अपनी मनमर्ज़ी करने लगे, खास कर के दूसरों हो नुक्सान पहुँचाने लगे, या धोखा देने लगे तो हमारा समाज चल नहीं पाएगा। इसलिए शासन-व्यवस्था की हमें ज़रूरत है और शायद मानव समाज में बहुत पहले, जब ये बड़े-बड़े देश और साम्राज्य नहीं भी थे, जब खेती के around गाँव तक नहीं बसे थे, तब भी छोटे कबीलों में किसी तरह की शासन व्यवस्था evolve हो ही गई थी। शायद कबीलों के बुजुर्ग या लोगों द्वारा चुने गए physically strong लोग नियम-क़ानून बनाने का और उसे बनाए रखने का काम करते थे। समय के साथ गाँव बसे, शहर बने, सभी लोगो का पूरा time survive करने लायक खाना ढूढ़ने में नहीं जाने लगा – तो समाज में division of labor आया – और लोगों की एक-दूसरे पर निर्भरता और भी बढ़ी, और ज़्यादा बड़े groups पर निर्भरता होने लगी। बढ़ते-बढ़ते आज हम ऐसे समाज में रह रहे हैं, जहाँ चीन, भारत, अमरीका जैसे बड़े-बड़े देशों को एक शासन-तंत्र की ज़रूरत पड़ती है। इतना ही नहीं कई मामलों में हमारी निर्भरता सिर्फ़ अपने देश पर नहीं, बल्कि पूरे विश्व पर है।

तो इसलिए हमें शासन तंत्र की ज़रूरत है। और जिसके हाथ में शासन होता है उसे कुछ powers देनी पड़ती हैं, ताकि वह शासन चला सके। लेकिन किसी भी इंसान के पास कोई special power या gift नहीं होता जिसकी वजह से उसे शासन करने का अधिकार मिलना चाहिए या जिससे ये guarantee है कि वह सही तरीके से शासन करेगा। अगर कोई शासन-तंत्र इस assumption पर काम करता है कि शासक के पास कोई natural अधिकार है शासन करने का और उसके साथ आने वाली power को अपनी मर्ज़ी से इस्तेमाल करने का, तो वह एक झूठ पर काम कर रहा है। और फिर उस शासन-तंत्र का उद्देश्य उस झूठ को बचाए रखना ज़्यादा हो जाता है, बजाय actually मानव समाज के कल्याण के लिए शासन करने का। शासन के अधिकार का logic और शासक को मिलने वाली power का उपयोग, ये दो चीज़ें किसी भी शासन-तंत्र को मूल-रूप से define करती हैं।

Democracy या लोकतंत्र का alternative कोई ऐसा system होगा, जिसमें शासन कोई एक इंसान करेगा। इसके कई स्वरूप हो सकते है, लेकिन जो सबसे common स्वरूप है, वह राजतंत्र का है। जिसमें शासन करने वाला व्यक्ति एक राजपरिवार से आता है। Most typically ये male primogeniture के सिद्धांत पर चलता है, यानि शासन पिता के बाद बड़े पुत्र के पास जाता है। Traditionally ऐसा कम हुआ है, लेकिन कहीं-कहीं अगर first child लड़की है तो शासन उसके पास भी जा सकता है। अगर शासक का बेटा नहीं है, तो अलग-अलग तरह के rule हो सकते हैं कि उसका उत्तराधिकारी कौन होगा। उन rules को लेकर अक्सर ही झगड़े और युद्ध भी हुए हैं क्योंकि उनमें भी कुछ natural तो है नहीं। अगर किसी एक व्यक्ति का शासन होना है और उसके परिवार के उत्तराधिकारियों को वो शासन बाद में मिलना है, तो उनके इस खास अधिकार को justify करने का कोई तरीका निकालना पड़ता है। इसका कोई logical answer तो है नहीं, इसलिए पूरी दुनिया में ही राजपरिवारों ने अपनी legitimacy के लिए कभी धर्म, तो कभी मनगढ़ंत इतिहास जिसमें वे आदिकाल से शासक रहे हों, तो कभी सीधे भगवान से connection वगैरह का सहारा लिया है। किसी-ना-किसी तरह से अपने शासन को एक दैवीय अधिकार के रूप में present किया है। जबकि वास्तव में ज़्यादातर राजपरिवार युद्ध, या पिछले राजपरिवार को धोखा देकर तख्तापलट करने के जरिए ही शासक बने होते हैं।

तो राजतंत्र की पहली समस्या ये है कि शासक का अधिकार किसी-ना-किसी झूठ पर आधारित होता है। ऐसा शासन-तंत्र ऐसी कोई भी चीज़ allow नहीं करेगा जिससे कोई उस झूठ पर सवाल उठा पाए। और क्योंकि वह झूठ अक्सर ही राजा और राजपरिवार का दैवीय अधिकार मानता है, तो समाज में उनकी position असाधारण होती है। दैवीय लोगों को आम लोग इंसानी तराजू पर नहीं तोल सकते।

और उससे निकलती है दिक्कत concentration of power की। एक राजा या परिवार के अधीन पूरा राज्य और उसके सारे निवासी हैं। अगर राजा भला है तो ठीक है, अगर बुरा है तो आप legally कुछ कर नहीं सकते क्योंकि सब कुछ “दैवीय” है। और power के concentration की एक-मात्र problem किसी के भला या बुरा होने की नहीं है। Power का concentration होने पर भला होना काफ़ी नहीं होता। क्योंकि किसी एक के लिए जो भला है, वो दूसरे के लिए बुरा हो सकता है।  अगर शहर के ग़रीब मजदूरों को भूख से मरने से बचाने के लिए राजा ने अनाज के दाम कम करवा दिए तो हो सकता है कि गाँवों में वो अनाज पैदा करने वाले लोग गरीब हो जाएं और ठंढ से बचने के लिए कपड़े ना खरीद पाएँ। किसी का भला किसमें है, यह बात भी कोई और नहीं जान सकता है। हो सकता है कि मजदूरों ने खाने का alternative निकाल लिया हो, जंगल से पोषक कंद-मूल ढूँढ़ के। शायद उनकी ज़रूरत भी ठंढ से बचने वाले कपड़ों की ज़्यादा थी, अनाज की नहीं।

पूरे मानव समाज को चलाना एक कठिन काम है। कोई एक व्यक्ति चाह कर भी सबका भला नहीं सोच पाता है। लेकिन क्योंकि राजतंत्र में legitimacy के लिए राजा और राजपरिवार अपनी असाधारणता का claim करते हैं, उस image को बचाए रखने के लिए उन्हें ये pretend करना ज़रूरी होता है कि वे सब जानते हैं। वे ऐसे systems नहीं बनाएंगे, जिनमें कोई उनकी गलतियाँ या कमज़ोरियां point out कर सके। अगर उन्होंने ऐसा किया तो उनकी legitimacy खत्म हो जाती है।

आधुनिक समाज में इस दैवीय अधिकार को seriously लेना मुश्किल है। इतना ही नहीं मानव सभ्यता के इतिहास ने ये prove भी कर दिया है कि राजतंत्र में शासक की unlimited power का दुरुपयोग होता ही होता है। सारी दुनिया में न्याय देने वाले राजाओं की कहानियाँ कही जाती हैं। वो शायद इसलिए कि unquestionable power मिलने के बाद वास्तव में मानव-कल्याण की चिंता करने वाले लोग कम ही होते हैं। इसलिए जो होते हैं वो कहानियों में अमर हो जाते हैं।

तो क्योंकि किसी व्यक्ति को दैवीय अधिकार नहीं है शासन करने का, तो फिर हमारे पास theoretically एक ही option रह जाता है। वो है जनता का शासन या democracy. बहुत अच्छी बात है लेकिन हम फिर उस सवाल पर वापस आ जाते हैं कि कैसे? सब लोग एक साथ शासन तो कर नहीं सकते। तो कुछ तो decide करना होगा कि कैसे होगा जनता का शासन? जैसे किसी इंसान के पास दैवीय अधिकार नहीं है शासन करने का, वैसे ही democracy की भी कोई दैवीय परिभाषा नहीं है। Democracy कैसे काम करेगी वह हमें decide करना होता है।

ये decisions कैसे लिए गए हैं, या लिए जा सकते हैं ये समझने के लिए इस stage पर, हम भारत की democracy पर एक नज़र डालते हैं।

हमारे देश में आज़ादी और लोकतंत्र के ideas overlap करते हैं। हमारे दिमाग में तस्वीर ये होती है कि हमें अंग्रेज़ों से, या गोवा, पॉण्डिचेरी जैसी जगहों में दूसरी विदेशी ताकतों से आज़ादी मिली और फिर हमारे देश में लोकतंत्र आ गया। विदेशियों का जाना और लोकतंत्र का आना, दोनों एक ही चीज़ लगती है। लेकिन यहाँ कई अलग-अलग चीज़ें हुईं थी।

पहली ये कि विदेशी शासन के जाने से लोकतंत्र का आना निश्चित नहीं होता। कम्बोडिया से जब विदेशी गए तो सरकार वापस उनके राजा को सौंप के गए। बर्मा में एक लोकतांत्रिक सरकार बनी लेकिन डेढ़ दशकों के अंदर मिलिट्री डिक्टेटरशिप आ गई। वियतनाम में एक-पार्टी की कम्युनिस्ट डिक्टेटरशिप आई और अभी तक है। यहाँ तक कि भारत से ही टूटे पाकिस्तान में भी लोकतंत्र आता-जाता रहता है। श्रीलंका में अंग्रेज़ निकलने से पहले कई तरह के लोकतांत्रिक बंदोबस्त कर के गए थे। लेकिन उनकी आपस की टकराव और गृहयुद्ध में कई बार लोकतंत्र हाथ मलता रह गया। Africa के कई देशों में विदेशियों के निकलने के बाद local तानाशाह आ गए। आज भी कई African देशों में ये तानाशाह आते-जाते रहते हैं, India में उसकी news भी नहीं आती। भारत में लोकतंत्र आया और बना रहा ये बहुत बड़ी बात है, जिसको taken-as-granted नहीं लेना चाहिए। विदेशी शासन के जाने से लोकतंत्र का आना निश्चित नहीं था।

दूसरी चीज़ ये है कि पूरे भारत को विदेशियों से आज़ादी नहीं मिली थी। देश में कई राजा और उनकी रियासतें भी थी आज़ादी के समय। कुछ राज्य तो काफ़ी बड़े भी थे, जैसे कि Mysore, Jaipur, Hyderabad वगैरह। उनकी प्रजा राजतंत्र के अंदर थी और राजा भारतीय थे। उन्हें लोकतंत्र अपने ही राजाओं को हटा कर मिला। ये outcome भी obvious नहीं था। हो सकता था कि वहाँ राजतंत्र ही बना रहता और वो रियासतें बाकी के India से अलग रहती। या हो सकता था कि वहाँ पर India से different और अंग्रेज़ों जैसा लोकतंत्र आता। England में practically लोकतंत्र है लेकिन technically उनका system constitutional monarchy कहा जाता है। क्योंकि सांकेतिक रूप से अभी भी वहाँ रानी Elizabeth का राज है और उनके बाद उनके उत्तराधिकारियों का होगा।

तीसरी ये कि अंग्रेज़ों का शासन formally हटे बिना भी India में democracy आ सकती थी। जैसे कि कैनेडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे मुल्कों की बात करें तो नाम के लिए उनके राजा या रानी अभी भी England के राजा या रानी ही होते हैं। लेकिन उनकी सरकारें लोकतांत्रिक है। Real sense में अंग्रेज़ों का शासन वहाँ नहीं है। India में भी जब तक हमने नया संविधान बनाकर 26 जनवरी 1950 को खुद को गणतंत्र नहीं घोषित कर दिया था, तब तक आज़ादी मिलने के बाद भी और सत्ता हिंदुस्तानियों के हाथों में आने के बावज़ूद भी रानी Elizabeth सांकेतिक तौर पर हमारी शासक थीं।

आगे बढ़ते हैं, लोकतंत्र का idea बिलकुल नया भी नहीं है। यदि इतिहास में जाएं तो शायद आपने प्राचीन भारत के जनपदों के बारे में सुना होगा जिन्हें लोकतांत्रिक माना जाता है। इनके बारे में सबकुछ details में तो नहीं पता है, लेकिन जितना पता है उससे ये clear है कि आजकल हम जैसे लोकतंत्र में रहते हैं, उससे ये कई तरीकों से अलग होगा। पहले तो उनका scale काफी छोटा था आज के भारत जैसे बड़े देश की तुलना में। तो बड़े scale  के elections, या अलग-अलग क्षेत्रों से प्रतिनिधि चुने जाने जैसी चीज़ें वहाँ नहीं होती होंगी। जिनको लोकतांत्रिक अधिकार थे वे सीधे ही शासन तंत्र में शामिल होते होंगे। और ये अधिकार उनमें से किसी में भी सभी नागरिकों के लिए नहीं रहे होंगे। कहीं ये सिर्फ़ परिवार के मुखिया के लिए रहे होंगे, कहीं selected caste या class के सभी पुरुषों के लिए, कहीं हो सकता है अमीर-गरीब सभी पुरुषों के लिए भी रहे हों, लेकिन स्त्रियों का participation नहीं ही रहा होगा – कुछ exceptional circumstances को छोड़कर। तो जो universal democratic rights हम आज देखते हैं जो कि caste, class, gender, पैसे, जमीन की ownership इन सब पर निर्भर नहीं करता है, वैसा कुछ उस समय के जनपदों में नहीं था। उसी समय में Greek civilization में city-states की बात होती है, जहाँ भी कोई राजा नहीं होते थे। लेकिन वहाँ भी प्रतिनिधियों के चुनाव जैसी चीज़ें नहीं थी। Eligible लोग सीधे democratic शासन तंत्र में participate करते थे। भारतीय जनपदों की तरह ही eligibility universal नहीं होती थी। Eligibility typically उन परिवारों के पुरुष मुखिया तक limited होती थी, जिनके पास ज़मीन की ownership थी।

1947 में जब भारत को आज़ादी मिली और हमारे संविधान के निर्माताओं को देश के लिए एक नए शासन तंत्र का निर्माण करने का मौका मिला तो भारत एक लोकतंत्र होगा यह शायद एक obvious decision रहा होगा, लेकिन उस लोकतंत्र का स्वरूप क्या होगा उसपर उन्हें काफ़ी सारे decisions लेने पड़े। एक फ़ायदा उनके पास ये था कि इस समय तक कई पाश्चात्य देशों के उदाहरण थे उनके पास democracy के अलग-अलग स्वरूपों के। इसका मतलब ये नहीं कि उन्हें कोई बनी-बनाई recipe मिल गई थी। उन्हें भारतीय context के हिसाब से एक शासन-तंत्र बनाना था। और उसके लिए सब-कुछ सिर्फ copy करने से नहीं चलता। लेकिन ये उदाहरण होने का फ़ायदा ये था कि कुछ चीज़ें हमें अपनी democracy में day zero से मिलीं। जैसे कि universal suffrage – यानि कि हर नागरिक को voting rights. लोकतंत्र के इतिहास में ये obvious नहीं रहा है जैसा कि हमने भारतीय जनपदों और Greek city states के उदाहरणों में देखा। लेकिन जो modern examples हमारे संविधान-निर्माताओं के पास थे, उनका इतिहास भी काफ़ी complicated था।

हमारी democracy का स्वरूप England के parliamentary system से बहुत मिलता जुलता है। हमारी parliament या संसद जहाँ हमारे elected प्रतिनिधि अपना काम करने जाते हैं, हमारी democracy का प्रतीक मानी जा सकती है, आज के England के parliament की तरह ही। लेकिन England में parliament हमेशा democratic नहीं थी और हमेशा universal voting rights की प्रतीक तो बिलकुल ही नहीं थी। England में parliament का उदय राजा को शासन के कामों मे मदद देने वाली councils के रूप में हुआ। क़ानून बनाने की power, या प्रधानमंत्री चुनने की पावर, ये सब हमेशा से parliament के पास नहीं थी। Parliament की power धीरे-धीरे बढ़ी और प्रायः यह सब ऊँची class के landowners की politics की वजह से हुआ जिसमें वे अपना फ़ायदा चाहते थे, democracy में उनका उससे ज़्यादा कोई interest नहीं था। Parliament में representation भी उनका ही होता था पूरी जनता का नहीं। England में parliament का concept तेरहवीं सदी से हैं, लेकिन 1832 तक मात्र 5% adult population को voting rights थे। 1832 के एक नए act से ये number 7% तक बढ़ा। समय को साथ और नए laws pass होने से finally 1918 में England में पूरे 100% पुरुषों को voting rights मिले। महिलाओं को ये universal rights मिलने में और 10 साल लगे। उन्हें ये rights 1928 में मिले।

America जिसने खुद को Britain से 1776 में ही अलग कर लिया था, और तब से democratic है, वहाँ भी universal voting rights नहीं थे। वहाँ ये rights state to state अलग थे और शुरुआत में ज़यादातर जगहों पर सिर्फ गोरे पुरुषों को ही voting rights थे, वो भी सिर्फ उनको जिनके पास ज़मीन की ownership थी। तब से कई बार voting rights को लेकर कई तरह के rules change हुए। कभी black लोगों, कभी महिलाओं को कुछ voting rights मिले, तो कभी vote करने के लिए property की requirements, poll tax की requirements, या साक्षरता की requirements लगा कर उन्हें बेकार कर दिया गया। वहाँ का drama बीसवीं सदी के दूसरे हिस्से में भी चलता रहा। 1950 में संविधान के साथ भारत जैसे एक नए लोकतंत्र में universal voting rights establish हो गए थे, लेकिन America में, जो 1776 से democratic होने का दावा कर सकता है, 1971 में जाकर पूरी adult population को universal suffrage मिली।

ये थोड़ा democracy के इतिहास का lesson हमने इसलिए लिया ताकि हम ये appreciate कर सकें कि democracy का स्वरूप क्या होना चाहिए ये हमेशा से लोगों को obvious नहीं रहा है। हर जगह की democracy का एक अलग historical context भी रहा है। अगर हम यह नहीं समझते हैं तो हम कई सारी चीज़ों का महत्व नहीं समझेंगे, और उनको पाने के पीछे कितना struggle रहा है, या कितना सोच-समझ कर कुछ चीज़ें बनाई गई हैं, यह भी नहीं समझेंगे। और अगर हम यह नहीं समझेंगे तो कभी वो चीज़ें हमसे छीनी जाने लगीं तो उससे कितना बुरा हो सकता ये भी नहीं समझेंगे और उसके लिए लड़ेंगे नहीं। इसलिए democracy को सिर्फ़ abstract में accept करना काफ़ी नहीं है। Democracy के actual स्वरूप को समझना, उसके हर हिस्से का महत्व समझना, उसकी ज़रूरी चीजों को बनाए रखने के लिए struggle करना और जो अभी भी सही नहीं है, उसको सही करना, ये सब कुछ actively करते रहने की ज़रूरत है। वर्ना democracy ने हमें जो power और opportunity दी है एक अच्छा और न्याय-पूर्ण समाज बनाने की, वो हम खो देंगे।

किसी एक व्यक्ति या परिवार या group को शासन करने का और उसके साथ आने वाली power के इस्तेमाल करने का दैवीय हक नहीं है, इसलिए democracy एक obvious choice है। लेकिन democracy को स्वरूप को carefully design करना ज़रूरी है। क्योंकि सिर्फ़ राजतंत्र ना होने से इसकी guarantee नहीं मिल जाती कि मानव-समाज का कल्याण होगा ही होगा। अगर democracy सही से designed नहीं है, तो उसमें भी राजतंत्र वाली समस्याएं ही आ सकती हैं। इसलिए democracy एक अच्छा idea है, शायद एक-मात्र idea है जिसको सही माना जा सकता है शासन-तंत्र के स्वरूप के रूप में, लेकिन democracy की legitimacy सिर्फ बेहतर idea होने से नहीं, बल्कि actual मानव-कल्याण से आती है। और इसलिए इस बात पर हमेशा नज़र रखने की ज़रूरत है कि हमारी democracy का स्वरूप मानव-कल्याण के लिए काम करता रहे। Democracy अगर सिर्फ कुछ लोगों के लिए काम करती है, तो वह काफ़ी नहीं है। राजतंत्र या तानाशाही पर वापस जाना उसका solution नहीं है क्योंकि वह तो कभी काम नहीं करेगी, लेकिन democracy को मानव-कल्याण के लिए मजबूत बनाना ज़रूरी है।

इस episode का उद्देश्य democracy के बारे में आपकी curiosity जगाने का था। इसके बारे में, खासकर भारतीय democracy के बारे में हम और बातें बाद के episodes में करेंगे। अभी मैं बस आपको कुछ सवालों के साथ छोड़ना चाहती हूँ।

  • क्या election होना democracy होने के लिए काफ़ी है?
  • Democracy में अधिकारों और कर्तव्यों का क्या role है?
  • क्या democracy का मतलब ये है कि जो majority जनता चाहे वही होना चाहिए? अगर नहीं तो democracy का मतलब क्या रहा?
  • क्या democracy में जो सरकार elect हो गई है हमें उसपर कोई सवाल नहीं उठाने चाहिए? जिसे हमने ही चुना है क्या उसपर सवाल उठाने का हमारा हक है?
  • क्या democracy की वजह से राष्ट्र कमज़ोर हो जाता है?
  • अगर democracy में सबको equal rights हैं तो क्या reservation जैसी चीज़ का कोई justification है?
  • क्या अनपढ़ लोगों के election में खड़े होने पर रोक लगा देनी चाहिए? क्या शासन-तंत्र सिर्फ शिक्षित लोग चला सकते हैं?

मैंने ये सवाल democracy के around होने वाले normal conversations से उठाए हैं, मैं इनको सही या गलत नहीं करार दे रही, ना ही इनका जवाब दे रही हूँ। लेकिन सोचिए इनके बारे में। बाद के episodes में इनमे से कुछ पर चर्चा भी करेंगे।

विद्वान लोगों के लिए एक disclaimer. इस episode में मैंने देशों के नाम थोड़े loosely इस्तेमाल किए हैं। England का मतलब कुछ contexts में Britain, कुछ contexts में United Kingdom, तो कही एक historical political entity हो सकता है जो इन सबसे ही अलग हो। अमेरिका भी loosely USA के लिए इस्तेमाल किया है। और भारत तो काफ़ी loosely इस्तेमाल हुआ है। जनपदों वाला भारत, British-ruled भारत, princely states वाल भारत और post-independence भारत काफी अलग entities हैं। लेकिन ideas समझने में उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ा होगा, तो इसलिए इनको और episode के दूसरे simplifications को please ignore कर दें।

धन्यवाद।

बुनियादी बातें (Buniyadi Baatein)

Statistics (बुनियादी बातें – Episode 6)

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नमस्कार। बुनियादी बातें के छठे episode में आपका स्वागत है। इस सीरीज़ में हम दुनिया भर की बातें करते हैं – Science की, history की, society की, लेकिन हमेशा करते हैं बुनियादी बातें। हमारे आज के episode का topic है Statistics. ये topic शायद थोड़ा surprising हो क्योंकि evolution, या equality, या Science जैसे हमारे पिछले topics की तरह statistics news में, या normal बातचीत में ज़्यादा सुनने को नहीं मिलता। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि ये कोई obscure सा concept है। Statistics शब्द भले ही हर रोज़ इस्तेमाल ना होता हो, लेकिन क्या आपने Covid vaccine की effectiveness के बारे में कुछ कहा या सुना है? क्या आपने कभी ये चर्चा की है कि पहले ज़माने के लोग ज़्यादा स्वस्थ होते थे और बिना किसी medical सहायता के ज़्यादा लंबी ज़िंदग़ी जीते थे। कभी आपने सुना है कि भारत में गरीबी घट या बढ़ गई है। कभी पढ़ा है कि scientists ने prove कर दिया है कि cigarette पीने से lung cancer होता है। यदि हाँ तो आपने statistics की बातें की हैं।

Statistics बड़े amounts के data को study करने का, उसको समझने का, उससे useful insights generate करने का तरीका है। और ये सब करना इसलिए महत्वपूर्ण है, और इसकी बात हम इस सीरीज़ में इसलिए कर रहे हैं कि इससे हमें अपनी दुनिया को समझने का एक बेहतर तरीका मिलता है। ये सब करने के लिए इसके equations कभी-कभी काफ़ी भयानक हो सकते हैं, लेकिन घबराइए नहीं। इस episode में statistics पढ़ाने का मेरा इरादा नहीं है। मेरा उद्देश्य है statistical thinking के कुछ आयामों को सामने लाना जिससे हम सब अपनी दुनिया को बेहतर और ज़्यादा accurately समझ सकते हैं, और उसके लिए complex formulae इस्तेमाल करने की ज़रूरत नहीं होती है। Formulae हम experts के लिए छोड़ सकते हैं, लेकिन सोच हम अपनी सही कर सकते हैं।

जैसे कि ये बात की पहले लोग ज़्यादा लंबी ज़िंदगी जीते थे यानि लोगों का life span ज़्यादा था। हम अपने आस-पास के बुजुर्गों को याद करते हैं जिनकी लंबी स्वस्थ ज़िंदग़ी थी, और फिर अपने आस-पास के ज़्यादा young लोगों को देखते हैं, जो शारीरिक रूप से कमज़ोर हैं, या जो heart attack, cancer, जैसी बीमारियों का शिकार हो जाते हैं, और हमें लगता है कि आज कल लोग बीमार हैं, कमज़ोर हैं, कम जीते हैं। लेकिन “पहले लोग ज़्यादा लंबी ज़िंदगी जीते थे” पूरी population के बारे में एक statement है। कुछ लोगों के उदाहरण से ये बात सही या गलत नहीं हो जाती। तो पूरी population के बारे में इस तरह का statement कब सही होगा, कब नहीं। सच तो ये है कि पहले भी कई लोग जल्दी मर जाते थे, और आज भी कई लोग जल्दी मर जाते हैं। पहले भी कई लोग लंबी ज़िंदग़ी जीते थे, आज भी कई लोग लंबी जिंदग़ी जीते हैं। तो पूरे human population के ऊपर जिंदग़ी लंबी हो रही है या नहीं, ये कैसे पता चलेगा। यहाँ पर एक बहुत ही basic statistical concept लाते हैं, average या औसत का। Specifically average life span का। कि पहले on an average लोगों की जिंदग़ी कितनी बड़ी होती थी और अब कितनी होती है।

जब हम पूरी population के life span का average देखते हैं तो कुछ अलग picture उमड़ती है। 1960 में India का average lifespan 41.42 years का था, जबकि 2019 में ये 69.66 years का था। लोग आजकल ज़्यादा लंबी ज़िंदग़ी जीते हैं, पहले नहीं – औसतन लगभग तीस साल ज़्यादा।

लेकिन अगर आपने इस बारे में पहले इस तरह से नहीं सोचा था तो कोई बड़ी बात नहीं है। Statistical thinking – जहाँ आप किसी individual entity को नहीं – बल्कि एक बड़े group को aggregate में समझने की कोशिश रहे हैं – natural नहीं है। घर में किसी बच्चे की उम्र क्या है, किसी बुजुर्ग की death किस उम्र में हुई, हमारे पड़ोसी की उम्र क्या है, इन सब के बारे में हम naturally सोच सकते है, लेकिन पूरे भारत की population की age के बारे में intuitively सोचना मुश्किल है। वैसे तो आजकल average जैसे measures का इस्तेमाल काफी common knowledge लगता है, लेकिन ये भी intuitive नहीं है। जैसा कि हमने life span वाले उदाहरण में देखा, average life span एक google search से available है लेकिन हम नहीं ढूँढ़ते हैं। हमारा दिमाग statistical thinking के लिए automatically tuned नहीं है, हमें deliberately सोचना पड़ता है कि किस तरह के सवालों के जवाब हमें actual, large scale data में ढूँढ़ने चाहिए।

सच ये है कि अगर हम प्रागैतिहासिक मानव की तरह छोटे-छोटे कबीलों में जंगलों में रह रहे होते तो हमें statistical thinking की ज़रूरत इतनी नहीं पड़ती, लेकिन आज का मानव समाज विशाल है और connected है। इसका मतलब है कि कई सारी चीज़ें बड़े scale पर होती हैं और हमें affect करती हैं। नई दिल्ली में कई decisions लिए जाते हैं, जो पूरे देश को affect करते हैं। और देश क्या – पूरी दुनिया के level पर चीज़ें हमें affect करती हैं। Amazon जैसी कंपनी अपना business कैसे चलाती है, pharmaceutical companies अपनी दवाइयाँ कैसै test करती हैं, world bank या Gates Foundation जैसे organizations किस तरह के projects को support करते हैं, इससे दुनिया के कई देशों में लोग affect होते हैं। इसलिए बड़े scale पर चीज़ों को समझने के लिए हमारे पास tools होना ज़रूरी है। Statistics एक ऐसा tool है।

इससे पहले की हम Statistical thinking पर और आगे जाएँ, मैं ये life span वाली चीज़ clarify कर देना चाहती हूँ। आखिर क्यों हमें obvious नहीं लगता कि लोग ज़्यादा लंबी ज़िंदग़ी जी रहे हैं। इसलिए कि हम selective evidence देखते हैं। हमें वो स्वस्थ बुजुर्ग याद रहते हैं जो 90-95 साल ज़िंदा रहे थे। हम ये भूल जाते हैं कि जब स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं थी, तब हमारी infant mortality rate कितनी high थी। जन्म लेने के कुछ ही दिन के अंदर कितने शिशु मर जाते थे, या child-birth में औरतों की कितनी ज़्यादा deaths होती थीं, या कितने लोग छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज ना होने की वजह से, या हलकी-फुलकी चोट लगने से बीस-तीस-चालीस साल की उम्र तक मर जाते थे। उस समय में लंबी उम्र तक वही लोग बचते थे जिनका स्वास्थ्य naturally बहुत अच्छा होता था और जो किसी accidental life threatening situation में नहीं फंसते थे। और ऐसे लोग stand out करते थे। उनकी कहानियाँ हमें याद रहती हैं। लेकिन कई लोग जो पहले नहीं जी पाते आज 40-50-60-70 सालों तक जीते हैं – कभी-कभी कुछ बीमारियों के साथ जीते हैं, लेकिन जीते हैं, ये चीज़ stand out नहीं करती। जब आप बड़े scale पर numbers को देखते हैं, और उसको analyze करते हैं, तभी ये समझ में आता है। और ये काम deliberately करना पड़ता है।

आगे बढ़ते हैं। Statistical thinking और किस तरह की चीज़ें समझने में हमारी मदद करती है? देश के लोगों की economic situation की बात करते हैं। Normally, लोगों को लगता है कि हमारे देश में आज से 50-60 सालों के पहले की तुलना में ज़्यादा prosperity आ गई है। अब हम life span वाली गलती नहीं करेंगे और इस बात को सही या गलत मानने से पहले actual data देखना चाहेंगे।  अगर हम India में average GDP देखें जो कि per capita income measure करने का एक तरीका है, तो हमारी per person income1960 से 2019 तक लगातार बढ़ी है – ये मँहगाई को adjust कर के भी साढ़े छह गुने हो गई हैं – 650% बढ़ी है। Covid ने 2019 के बाद उस बढ़त पर रोक लगा दी। लेकिन 2019 तक के लिए अगर हमें लगता है कि हमारे देश में prosperity बढ़ी है, तो यह बात numbers से जायज़ लगती है।

लेकिन average income का मामला average life span से ज़्यादा complicated है। और उसका एक बड़ा कारण ये हैं कि income में कोई upper limit नहीं होती। तो ऐसा possible है कि कुछ बहुत थोड़े लोगों की income बहुत बढ़ गई हो, उसकी वजह से average बढ़ा जा रहा हो, लेकिन ज़्यादातर लोगों की income ना बढ़ रही हो या बहुत कम बढ़ रही हो। Age में एक natural upper limit होती है जो कि सारी सुविधाएं उपलब्ध होने के बावजूद ज़्यादातर लोग cross नहीं कर सकते। तो Average age अगर 40 ले बढ़कर 70 हुई है तो ये हो सकता है कि अमीर लोगों की average age गरीबों से ज़्यादा हो, और ज़्यादा बढ़ी हो, लेकिन सिर्फ 5-10% लोगों की age बढ़ने से 30 साल का औसत difference नहीं आ जाएगा, क्योंकि 10% लोगों की उम्र 200-300 साल नहीं हो सकती। लेकिन income के मामले में इस तरह का फ़र्क संभव है। तो अगर हम पूरे देश की prosperity की situation समझना चाहते हैं तो सिर्फ़ average income देख कर काम नहीं चलेगा। ये भी देखना पड़ेगा कि उस income का distribution कैसा है। Distribution देखने के कई complicated statistical तरीके हो सकते हैं, लेकिन complicated तरीके हम statistics के experts पर छोड़ देंगे। एक तरीका देखने का यह है कि जो top 1% या 5% या 10% लोग हैं उनके पास पूरे देश की income का कितना हिस्सा जाता है, और जो bottom 10-20-50% हैं उनके पास कितना।

और कुछ latest reports के हिसाब से भारत में Top 1% वाले लोग लगभग 22% income पाते हैं, Top 10% वाले लोग 57% income पाते हैं, जबकि bottom 50% को मात्र 13% income मिलती है। कोविड के पहले कई सालों में भारत में average income सालाना 1 lac से ऊपर थी। Depending on कि आपकी कितनी है ये आपको बहुत कम लग सकती है, या उतनी बुरी नहीं लग सकती है। लेकिन ये average top के लोगों ने कितना ऊपर खींचा है और bottom वाले लोग इससे कितने नीचे हैं, इसको ध्यान में रखे बिना भारत के लोगों की आर्थिक स्थिति कैसी है और इसलिए हमारी economic policy कैसी होनी चाहिए ये हम नहीं समझ सकते सिर्फ average देख कर या सिर्फ अपने आस-पास के कुछ लोगों का experience देखकर। यहाँ हमें numbers देखकर statistical thinking apply करने की ज़रूरत है। तो अगर population की average income 1 lac है, तो पहले जो हमने data देखा उसके हिसाब से Top 1% में लोगों की average income 22 lac है, Top 10% में 5.7 lac,और bottom 50% में मात्र 26000 रह जाती हैं – सालाना। Bottom 10%, 5%और 1% पर जाएंगे तो पता नहीं क्या होगा।

Economy, economic equality और उससे जुड़े दूसरे concepts जैसे कि meritocracy पर फिर कभी बात करेंगे। अभी हम आगे बढ़ते हैं और देखते हैं कि और कहाँ-कहाँ और कैसे statistical thinking हमें दुनिया को समझने में मदद करती है।

Statistical thinking business में अक्सर technically simple, लेकिन interesting तरीकों से इस्तेमाल होती है। जैसे कि अगर आप amazon पर शिकायत करेंगे कि कोई order जो delivered दिखा रहा है, वो आपको नहीं मिला तो कई बार वो बिना कोई सवाल किये आपको immediately refund दे देते हैं। जब मेरे भैया के साथ ऐसा हुआ तो वे बिलकुल चकित रह गए कि ये तो घाटा ले लिया company ने। लेकिन company के अंदर ये कैसे decide होता है कि इसके लिए क्या करना है। इसके लिए simple statistical thinking की ज़रूरत होती है। कंपनी के अंदर एक-एक order पर फ़ायदा-घाटा उतना मायने नहीं रखता जितना overall. और statistics में एक law of large numbers होता है, जिसका एक implication है कि जब आप बड़े scale पर काम कर रहे हैं तो बहुत सारी घटनाएं aggregate में predictable और stable रहती हैं। जैसे कि अगर एक e-commerce कंपनी रोज़ एक लाख orders process कर रही है और उसमें से एक दिन कुछ 10 orders की delivery गड़बड़ हो जाती है, तो वह number day-on-day लगभग constant रहता है। आपको नहीं पता होगा कि कौन से 10 orders गड़बड़ होंगे individually, लेकिन aggregate level पर हर 1 लाख order पर कभी 9, कभी 10, कभी 11 – इसके आस-पास orders गड़बड़ होंगे। ये ध्यान रखिए कि 99,990 orders सही जा रहे हैं, तो ऐसा नहीं है कि system में कुछ fundamental गड़बड़ है। लेकिन human mistakes, या ख़राब weather, या किसी courier company के employee की लापरवाही या ऐसी कई और वजहों से कुछ-ना-कुछ गड़बड़ हो ही सकती है। इस तरह की गड़बड़ियां होंगी, ये कंपनी मान कर चलती है और उसकी baseline बना कर रखती है, जो कि stable रहती है। हमारे example में ये baseline 1 लाख orders में से 10 orders की establish हुई है। तो इन 10 orders को ठीक करने की कोशिश करने में या इनमें से हर-एक को investigate करने की कोशिश में कंपनी की जितना खर्चा होगा, उससे कम खर्चे में वे customers को refund दे सकते हैं। Customers को आसानी से refund मिलने से वे भी खुश रहते हैं और ज़्यादा चीज़ें order करते हैं। और average 10 orders के refund का cost company अपने business plan में पहले से ही डाल कर रखती है, ठीक वैसे ही जैसे वो अपने office का और warehouse का और employees का cost business plan में डाल कर रखती है। जो ये scale पर चीज़ें predictable और stable होती हैं, उसका एक implication यह भी है कि अगर ये number बदल रहे हों तो उसका कोई systemic reason ज़रूर होगा।  तो अगर ये 10 गड़बड़ियाँ, 11, फिर 12, फिर 13-14-15 होने लगेंगी तो वो same unavoidable reasons से नहीं हो रही होंगी। बड़े scale पर ऐसे numbers randomly change नहीं होते। तो अगर गड़बड़ियाँ बढ़ने लगती हैं तो Amazon वो घाटा नहीं सहता रहेगा या उसके लिए अपना business plan change नहीं करता रहेगा। ऐसा हुआ तो वहाँ के कई analysts, operations manager, business manager, product manager इस problem को solve करने तक अपनी नींद गंवाते रहेंगे। लेकिन 10 गड़बड़ियों को refund देकर निबटा लेना एक बहुत important decision है, वर्ना कंपनी उनमें से हर एक order को locate करते रहने की कोशिश में अपने resources बर्बाद करेगी, और फिर customers को immediate refund ना देने से उनको भी नाखुश करेगी और अपना future business कम करेगी। ऐसे decision statistical thinking से ही लिए जा सकते हैं।

Statistics के use की एक और बात Scientific experiments से जुड़ी हुई है। इसका एक उदाहरण clinical trials हैं, जिससे नई दवाइयों का और vaccines का test किया जाता है कि वे काम करती हैं या नहीं। Covid की वजह से clinical trials जैसे शब्द अब सबने सुने हैं। क्योंकि ऐसे तो vaccines और दवाइयों को लेकर हमेशा ही काम चलता रहता है, लेकिन Covid ने उसे इतना urgent बना दिया पूरी दुनिया में सबको अचानक से vulnerable बना कर कि जिस तरह के कामों में पहले कई साल या कई दशक भी लगते थे, इस बार वे महीनों में किये गए और news का हिस्सा बन गए।

Clinical trial fundamentally कैसे काम करता है? इसको हमने Science वाले episode में describe किया था। इसमें आप कुछ बड़ी संख्या में participants को लेंगे। आसान रखने के लिए हम मान लेते हैं कि 200 participants हैं। उनको हम दो हिस्सों में divide करेंगे। और ये division random होना चाहिए। हर participant को literally सिक्का उछाल कर एक या दूसरे group में डालना होगा। एक को control group कहते हैं, दूसरे को experiment group. Control group वाले लोगों को एक placebo दिया जाता है – कुछ harmless चीज़ जो कि दवाई नहीं है। उन्हें पता नहीं होता कि ये actual दवाई नहीं है। Experiment group वाले लोगों को actual दवाई दी जाती है। और फिर देखा जाता है कि दोनों groups में क्या फर्क है। अगर experiment group वाले ज़्यादा लोगों की बीमारी ठीक हो जाती है, या उसमें कम लोगों को बीमारी होती हैं – जो कि vaccine का उद्देश्य होता है – तो हमें पता चलता है कि vaccine या दवाई effective है।

अब इस पूरी चीज़ को थोड़ा unpack करते हैं और इसकी statistics समझते हैं।

कई बार जब लोग ऐसी बीमारियों से जूझ रहे होते हैं, जिनका आसान इलाज नहीं है, तो उन्हें अक्सर तरह-तरह की recommendation मिलती रहती हैं। अगर आपको migraine की शिकायत हैं तो I am sure हर कुछ महीनों में कोई-ना-कोई बताता है कि फलाँ को इस ayurvedic दवाई से फ़ायदा हुआ था, या दीदी के बहनोई ने सुबह तेल पीना शुरु कर दिया तो उनका migraine ठीक हो गया, वहैरह-वगैरह।

मान लीजिए कि ये सब लोग झूठ नहीं बोल रहे हैं, लेकिन अगर आपने कभी ऐसे नुस्खे अपनाए हैं तो आपको पता होगा कि भले ही दूसरे आदमी पर वो कितना भी effective हुआ है, आपके ऊपर वह अक्सर ही effective नहीं होता है। ये चीज़ तो इतनी statistics की बात कर के अब obvious लगने लगी होती कि एक उदाहरण से कुछ prove नहीं होता है। लेकिन कितना ही वाहियात नुस्खा क्यों ना हो, हमेशा कुछ लोगों पर असर ज़रूर करता लगता है। ऐसा क्यों होता है, ये पूरी तरह से ज्ञात नहीं है। लेकिन obviously कुछ तो connection है mind और body का जिसकी वजह से कई cases में अगर दिमाग को लगता है कि body को कुछ effective चीज़ दी जा रही है, तो वो गलत भी हो, फिर भी body positively respond करती है। और बड़े scale पर इस चीज़ को placebo effect कहा जाता है। कि किसी भी तरह की treatment से कुछ लोगों को हमेशा placebo effect का फ़ायदा होगा। तो इसलिए कोई दवाई, treatment या vaccine effective तभी मानी जाती है जब उसका असर placebo से ज़्यादा हो। ये interesting है क्योंकि even if हम placebo effect की वजह नहीं जानते, हम उसको statistics से समझ सकते हैं, उसको measure कर सकते हैं, और उसको सही तरह से account for कर सकते हैं। इसलिए clinical trial के design में control group को placebo दिया जाता है ताकि हम देख सकें कि experiment group पर placebo से ज़्यादा असर हुआ या नहीं। Actually हम तीन groups के साथ भी काम कर सकते हैं, एक को कोई treatment ना मिले, एक को placebo, और एक को actual treatment जिसको test करना है। इससे हम exact placebo effect भी measure कर सकते हैं।

वापस जाते हैं जहाँ आपको नुस्खों के बारे में advice मिल रही थी। ये तो समझ में आ गया कि एक जने के experience से नहीं पता चल सकता है कि नुस्खा actually काम करता है या नहीं। तो मान लीजिए कि किसी तरह आपने अपने आस-पास के 20 लोगों को जुटाया जिनको migraine की problem है, और उनको 10-10 के group में बाँटकर एक तरह का clinical trial ख़ुद कर लिया। 10 को वो नुस्खा दिया और बाकी दस को कुछ वैसी ही दिखने वाली लेकिन बेअसरदार चीज़ दी।

अब मान लीजिए कि placebo वाले group में उसके बाद 5 लोगों को migraine हुआ और नुस्खे वाले group में 4 ही लोगों को हुआ। तो नुस्खे ने migraine पूरी तरह खत्म तो नहीं कर दिया, लेकिन क्या हम ये कह सकते हैं कि ये नुस्खा placebo से 10% ज़्यादा effective है क्योंकि 10 के base में इसमें 1 कम व्यक्ति को migraine हुआ?

देखते हैं।

अगर हम 20 नहीं सिर्फ एक या दो लोगों के experience पर जाएँ  तो उस पर भरोसा नहीं के बराबर होगा।

दूसरे extreme पर अगर हमने पूरी मानवजाति के सारे migraine patients पर experiment किया होता और उसमें नुस्खा 10% ज्यादा effective निकलता तो हमें इस नंबर पर 100% भरोसा होता क्योंकि कोई और बचा ही नहीं जिसको include करने से ये नंबर change हो जाएगा।

लेकिन एक व्यक्ति का अनुभव ज़्यादा काम का नहीं है और 100% patients पर experiment करना realistically possible नहीं है।

तो हम बीच-बीच के नंबर से काम चलाते हैं। अगर 2000 patients पर experiment हुआ और 10% difference आया – यानि एक हजार के group में 100 लोग कम बीमार पड़े – तो हमें इस पर 100% तो भरोसा नहीं होगा, लेकिन काफ़ी ज्यादा होगा। 200 patients पर experiment हुआ और 10% difference आया – यानि एक सौ के group में 10 लोग कम बीमार पड़े – तो हमें थोड़ा और कम भरोसा होगा लेकिन फिर भी ठीक-ठीक हो सकता है। 20 patients वाले experiment में एक मरीज़ का फर्क है 10% फर्क होना के मतलब। ये random फ़र्क हो सकता है, इसलिए उस पर ज़्यादा भरोसा नहीं होगा। लेकिन – अगर 20 patients वाले experiment में 100% का फ़र्क होता कि placebo वाले group में सारे दस लोगों को दुबारा migraine होता और और experiment वाले groups में सारे दस लोग सही रहते – तो इस result पर थोड़ा ज़्यादा भरोसा होता।

यहाँ पर देखिए दो numbers की बात हो रही है, एक तो ये कि नुस्खे की effectiveness कितनी है experiment के basis पर। वो हमने कहा 10% है। दूसरे ये कि इस 10% के number पर हमें कितना भरोसा है। इसपर मैंने कोई नंबर डाला नहीं example में, लेकिन इतना ज़रूर बताया कि भरोसा का %age ज़्यादा होता है अगर experiment ज़्यादा लोगों पर किया गया हो, या difference बहुत high हो।

  • 20 लोगों के experiment में 10% के फ़र्क पर कम भरोसा होगा, 100% के फ़र्क पर ज्यादा भरोसा
  • 20 लोगों के experiment में 10% के फ़र्क पर कम भरोसा होगा, 2000 लोगों के experiment में 10% के फ़र्क पर ज्यादा भरोसा

ये भरोसे का %age calculate करने के भी तरीके हैं, लेकिन वो उस complexity पर चले जाते हैं जो हमने कहा था कि हम experts पर छोड़ देते हैं। Practically जब आप news पढ़ते हैं तो ये भरोसे का %age report नहीं होता – क्योंकि ये intuitive नहीं है। अब experiments पूरे population पर हो नहीं सकते, इसलिए भरोसे का %age 100 तो कभी हो नहीं सकता। Scientific experiments में common  practice ये है कि अगर भरोसे का %age 95 या उससे ज़्यादा है तो आप उस difference को जायज़ मानते हैं और उसे report करते हैं। मैंने confirm नहीं किया है लेकिन मेरा guess है कि Covid vaccine की जो effectiveness report हो रही है, वह भी 95% या उससे ज़्यादा भरोसे से report हो रही होगी। News में आप सिर्फ दोनों groups का difference सुनते हैं कि vaccine 70% effective है या 90% effective है।

तो Statistics के claim और उसकी वजह से ज़्यादातर scientific claims probabilistic होते हैं, definitive नहीं। यानि की वे ये नहीं कहते कि cigarette पीने से हमेशा lung cancer होता है। या cigarette नहीं पीने से नहीं होता। वे ये कहते हैं कि हमें 95% से ज़्यादा भरोसा है कि cigarette पीने वाले लोगों को cigarette ना पीने वाले लोगों की तुलना में lung cancer होने chances 30 गुना ज़्यादा है। तो अगर आप किसी को जानते हैं जिसको cigarette पीने पर भी  lung cancer नहीं हुआ और कोई और जिसने कभी cigarette नहीं पी फिर भी उसे हो गया, तो इसका मतलब ये नहीं कि scientists ने कुछ गलत कहा है। इसका मतलब ये है कि आपको और ज़्यादा लोगों के cases देखने होंगे ये पता लगाने के लिए कि lung cancer का cigarette से कोई लेना-देना है या नहीं। और 100% certainty किसी fact में नहीं मिलेगी। जिन्होंने ज़्यादा cases देखे cigarette पीने और lung cancer के, उन्होंने ही ये बताया कि 30 गुना खतरा ज़्यादा है। होने के chances तीस गुना ज़्यादा हैं लेकिन 100% नहीं हैं। तो कोई ना कोई lucky निकल ही जाएगा, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप बिना किसी डर के cigarette पीने लगें।

इसी तरह से दवाइयों का असर। कोई दवाई 100% भरोसे के साथ 100% effectiveness claim नहीं कर सकती। इसलिए किसी भी दवाई के लिए हमेशा ही ऐसे लोग होंगे जिनके लिए वो काम नहीं करेगी।

दूसरी और placebo effect भी भूल मत जाइएगा। कोई भी नुस्खा ले आइए – कुछ लोगों को वो फ़ायदा करेगा-ही-करेगा – placebo effect की वजह से।

इस episode में हमने statistical thinking के कुछ उदाहरण देखे, उससे जुड़ी कुछ statistical तकनीकें देखी, लेकिन कई और तकनीकें हैं जिनका इस्तेमाल बड़े scale पर numbers के साथ कर के हम दुनिया को बेहतर समझ सकते हैं और बेहतर decisions ले सकते हैं। आज के बाद, अगर आपको क्या तकनीक इस्तेमाल करनी है या कहाँ से data लाना है ये ना भी पता हो, तब भी समय-समय पर चीज़ों को question करते रहने की आदत बनानी चाहिए कि क्या ये बात वाकई obvious है या इसके लिए बड़े scale पर numbers देखने की ज़रूरत है? जैसे कि क्या वाकई सुबह सुबह नींबू-शहद का गरम पानी पीने से weight घटता है? या क्या वाकई NASA के 90% scientists Indian हैं? या क्या rape जैसे crime के लिए मौत की सज़ा देने से वाकई crime कम होते हैं? क्या वाकई 70 सालों में India में कोई progress नहीं हुई? क्या Covid के बाद India में income inequality और भी बढ़ी है?

सवाल पूछते रहिए क्योंकि किसी विद्वान् आदमी ने कहा था – To ask the right question is already half the solution of a problem.

Statistics अब तक का सबसे ज़्यादा non-intuitive topic था, तो simplifications ज़रूरी थे। Statistics के गुरु लोग भूल-चूक माफ़ करें।

धन्यवाद।